*इमाम रेज़ा (अ) की ग़ालियों से बेज़ारी*
पैग़म्बर नौगांवी
आइम्मा ए अहलेबैत (अ) ने अपने अपने ज़माने के हालात के मुताबिक़ दीने इस्लाम की हिफ़ाज़त फ़रमाई है।
इमाम अली (अ) ने ख़ामोश तबलीग़ के ज़रीए।
इमाम हसन (अ) ने सुलह के ज़रीए।
इमाम हुसैन (अ) ने मक़तल में क़र्बानी के ज़रीए।
इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) ने दुआओं के ज़रीए।
इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ) ने रसूल अल्लाह (स) की हदीसों के प्रचार के ज़रीए।
इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) ने शागिरदों की तालीम व तरबीयत के ज़रीए।
इमाम मूसा काज़िम (अ) ने विलायत और वली के प्रचार के ज़रीए। और
इमाम अली रेज़ा (अ) ने इल्मी मुबाहेसों और मुनाज़रों (Debate) के ज़रीए दीनी अक़दार (Values) व उसूल को बचाया है ।
इमाम अली रेज़ा (अ) के ज़माने में ग़ाली और बेदीन लोग सब से बड़ी मुसीबत बने हुए थे।
इमाम हसन (अ) और इमाम हुसैन (अ) व दूसरे आइम्मा के ज़माने में इस्लाम के लिए जितने बनी उमय्या ख़तरनाक थे उन से ज़्यादा इमाम रेज़ा (अ) के ज़माने में ग़ाली नुक़सान पँहुचाने वाले थे।
ग़ुलू का मतलब किसी की हद से ज़्यादा तारीफ़ बयान करना या एतक़ाद रखना होता है।
हर हद से ज़्यादा को ग़ुलू नहीं कहते बल्कि वह हद से ज़्यादा जो ख़ुद हद को नुक़सान पँहुचादे उसे ग़लू कहते हैं, ग़ुलू की 2 क़िस्में हैं:
*1- ग़ुलू ए इल्हादी*
यानी ज़ात में ग़ुलू करना जैसे इमाम को ख़ुदा या पैग़म्बर तसलीम करना।
*2- ग़ुलू ए तफ़वीज़ी*
यानी सिफ़ात में ग़ुलू करना जैसे वह सिफ़तें जो ख़ुदा से मख़सूस हैं उनकी निसबत इमाम (अ) की तरफ़ देना। जैसे राज़िक़ या ख़ालिक़ की सिफ़त को इमाम (अ) से मनसूब करना।
शियों में मुनज़्ज़म तौर पर गु़लू कीसानिया फ़िर्क़े से शुरु हुआ।
कीसानिया बनी उमय्या के ख़िलाफ़ एक अंडर ग्राउंड ग्रुप था जिनकी एक्टीविटीज़ छुपते छुपाते होती थीं, इस लिए ये लोग इस बात पर मजबूर हुए के अपने एतक़ादात को अपने ग्रुप के बीच बहुत ज़्यादा बुलंद व बाला करके बयान करें इसी लिए ये लोग मुहम्मदे हनफ़ीया और उनके बाद अबू हाशिम को सब से अफ़ज़ल समझने लगे, ये ग्रुप 96 हिजरी में बिखर कर समाज में घुल मिल गया और इनके एतक़ादात शियों में फैल गए।
इमाम रेज़ा (अ) के ज़माने में ग़ालियों की दोनों क़िस्में मौजूद थीं और आपने दोनों ही क़िस्मों से (लफ़ज़ी जंग) मुबारज़ा किया है।
इमाम (अ) के नज़दीक ग़ुलू की वजह लोगों की जिहालत व नादानी और ख़ुदावंदे आलम की अज़मत को न समझना था।
ग़ालियों के बारे में आपने (अ) अपने साथियों को ये नसीहत फ़रमाई थी कि:
*ग़ालियों के साथ उठ बैठ न करना और उनसे शादी ब्याह के रिश्ते क़ायम न करना।*
इमाम रेज़ा (अ) ख़ुद भी ग़ालियों से बहुत नफ़रत करते थे, इमाम रज़ा (अ) ने फ़रमाया:
*जो शख़्स भी अमीरुल मोमेनीन अली (अ) के बारे में बन्दगी की हद से आगे बढ़ेगा तो वो उन में से होगा जिन पर ग़ज़ब नाज़िल किया गया है और जो गुमराह हैं।*
और ख़ुद हज़रत अली (अ) ने फ़रमायाः
*हमारी बंदगी की हद से हमें आगे न बढ़ाओ इस के बाद हमारे बारे में जो चाहो कहो जबकि तुम कितनी ही तारीफ़ करलो जो हमारा हक़ है वो अदा नहीं हो सकता, ख़बरदार! कहीं ऐसा न हो के ईसाइयों की तरह ग़ुलू में मुबतला हो जाओ, क्योंकि मैं हर क़िस्म के ग़ुलू करने वालों से बेज़ार हूँ।*
जब इमाम रेज़ा (अ) की गुफतुगू यहाँ तक पँहुची तो एक शख़्स खड़ा हुआ और कहाः
*ऐ फ़रज़ंदे रसूल! अपने ख़ुदा की हमारे लिए तारीफ़ बयान किजिए क्योंकि हमारे साथी इस बारे में इख़तलाफ़ात रखते हैं।*
ये सून कर इमाम रेज़ा (अ) ने ख़ुदावंदे आलम की बेहतरीन तारीफ़ व हमद बयान की और जो सिफ़तें उसकी ज़ात के लायक़ नहीं थी उनसे ख़ुदा को पाक व पाकीज़ा क़रार दिया।
तो इस शख़्स ने कहा कि:
ऐ फ़रज़ंदे रसूल मेरे माँ-बाप आप पर फ़िदा हो जाऐं, मेरे साथी आपकी मुहब्बत का दम भरते हैं और वह यह गुमान करते हैं के यह तमाम सिफ़ात जो आपने बयान फ़रमाए हैं यह सिफ़ाते अली (अ) हैं और अली (अ) ख़ुदा हैं और जहान के परवरदिगार हैं।
इमाम रेज़ा (अ) ने जब उसकी ये बात सुनी तो आपका बदन लरज़ने लगा, पूरा बदने मुबारक पसीने से तर हो गया और आपने फ़रमायाः
*ख़ुदावंदे आलम सितमगरों और कुफ्ऱ बकने वालों की ऐसी बातों से पाक वा पाकीज़ा और बुलंद मरतबा है, क्या अली (अ) खाना खाने वाले इंसानों की तरह खाना नहीं खाते थे ? पानी पीने वाले इंसानों की तरह पानी नहीं पीते थे ? क्या उन्होंने अक़्दे निकाह नहीं किया था ? हाँ! वह दूसरे इंसानों की तरह इंसान ही थे जो ख़ुदा के सामने अपना सर झुकाते थे।*
(एहतजाजे तबरसी, जिल्द 2, पेज 201, नाशिर इंतशाराते शरीफ़ रज़ी तेहरान, पहला एडीशन 1380 हि0)
एक रिवायत में आप इरशाद फ़रमाते हैं कि:
*जो शख़्स भी पैग़म्बरों को रब समझे या इमामों में से किसी इमाम (अ) के पैग़म्बर (स) या रब होने का दावा करे तो हम उस से दुनिया और आख़ेरत में बेज़ार हैं।*
(शैख़ सुदूक़, उयून अख़बार अल रेज़ा, जिल्द 2, पेज 201, नाशिर नश्रे जहान, तेहरान, पहला एडीशन 1378 हि0)
इमाम रेज़ा (अ) के जमाने में ग़ालियों का एक ग्रुप पैग़म्बरे इस्लाम (स) और आइम्मा ए मासूमीन (अ) के बारे में हद से बढ़ गया था।
इसी तरह यूनुस बिन ज़बयान (जो मुहम्मद बिन मिक़लास अबुल ख़त्ताब का पैरोकार था) इमाम रेज़ा (अ) को अल्लाह समझने लगा, जब इमाम रेज़ा (अ) को इस बारे में पता चला और इसके एतक़ादात की ख़बर हुई तो इमाम (अ) बहुत ग़ज़बनाक हुए और उस पर नफ़रीन की। (बिहारुल अनवार, जिल्द 25, पेज 264, मतबूआ तेहरान)
इमाम रेज़ा (अ) ने अपने अजदाद की तरह ग़ुलू से सख़्त जंग की है और ग़ालियों से बेज़ारी का इज़हार फ़रमाया है ताके शीया समाज ग़ालियों के बातिल अफ़कार से महफ़ूज़ रहे और शीइयत का चेहरा मैला न हो जाए।
इमाम रेज़ा (अ) ने क़ुरआने मजीद की आयतों, रसूले इस्लाम (स) और इमाम अली (अ) की अहादीस से साबित करते हुए फ़रमाया है कि:
*ख़ुदावंदे आलम ने अपने रसूल (स) को इस से पहले के अपना रसूल बनाए अपना बंदा बनाया है और वह लोग जो इमाम अली (अ) से हद से ज़्यादा दोस्ती का दम भरते हैं वह उन लोगों की तरह, जो इमाम अली (अ) से हद से ज़्यादा दुशमनी रखते हैं हलाकत वो गुमराही में मुबतला हो गए हैं।*
इमाम रेज़ा (अ) ने आइम्मा (अ) के फ़ज़ाइल के नाम पर ऐसी ग़ुलू आमेज़ हदीसों को ऐसे शिया मुख़ालिफ़ लोगों की करतूत बताया है जो लोगों को शियों की तकफ़ीर (काफ़िर कहने) पर उभारना चाहते हैं और ये बताना चाहते हैं के आइम्मा (अ) के असहाब अपने इमामों को अपना परवरदिगार समझते हैं (उयून अख़बार अल रेज़ा, जिल्द 1, पेज 304)
इमाम रेज़ा (अ) ने मुसलमानों के हक़ीक़ी रहबर के उनवान से ग़ालियों की सोच और एतक़ादी बुनियादों को ढ़ाने के साथ साथ ऐसे लोगों की बहुत ज़्यादा मज़म्मत फ़रमाई है जो ग़ालियों की सोच को फ़ैलाते है, इमाम ने ऐसे लोगों की समाज में पहचान भी कराई ताकि दूसरे लोग इनके शर से महफ़ूज़ रहें।
इमाम रेज़ा (अ) ने शियों को आगाह करते हुए ऐसे ग़ालियों की सोच से पँहुचने वाले नुक़्सान की तरफ़ इशारा करते हुए फ़रमाया है कि:
हमारे दुशमनों ने हमारे बारे में 3 तरह की रिवायात गढ़ी हैंः
1- हमारे बारे में ग़ुलू (फ़ज़ायल में हद से ज़्यादती) बयान करना।
2- हमारे बारे में कोताही (फ़ज़ायल में हद से कमी) बयान करना।
3- हमारे दुशमनों पर खुल्लम खुल्ला ताना ज़नी और उनकी बुराई बयान करना।
जब भी लोग हमारे बारे में ग़ुलू आमेज़ फ़ज़यल सुनेंगे हमारे शियों की तकफ़ीर करेंगे (यानी उन्हें काफ़िर कहेंगे) और उन्हें हमारी ख़ुदाई का मोतक़िद समझेंगे।
जब भी लोग हमारे फ़ज़ायल में कमी सुनेंगे तो हमारे मरतबे को कम समझेंगे।
जब भी लोग हमारे दुशमनों को खुल्लम खुल्ला बुरा कहते सुनेंगे तो फ़िर हमें भी बुराई से याद करेंगे।
(उयून अख़बार अल रेज़ा, जिल्द 1, पेज 304)
इमाम रेज़ा (अ) की इस हदीस से हमें ये सबक़ मिलते हैंः
1- ग़ुलू वाली रिवायात पर भरोसा नहीं करना चाहिए क्योंकि ये दुशमनों की गढ़ी हुई हैं।
2- ग़ुलू में आले रसूल (अ) से दुशमनी पाई जाती है।
3- ग़ुलू करने वाला किसी भी निय्यत से ग़ुलू करे इसका अंजाम शीइयत का नुक़्सान है।
4- उन रिवायतों में भी सोच विचार की ज़रुरत है जिनमें दुश्मनाने अहलेबैत (अ) पर खुल्लम खुल्ला लान तान का ज़िक्र है।
5- वो रिवायतें भी एतबार के लायक़ नहीं हैं जिनमें आइम्मा (अ) के मरतबे को कम किया गया है।
इमाम (अ) का ग़ालियों से मुबारज़े का ये इक़दाम और एहतमाम सिर्फ़ आपके ज़माने तक महदूद नहीं था बल्कि इमाम (अ) की सीरत के तौर पर इमाम (अ) का ये मुबारज़ा (जंग) आज भी मौला (अ) के चाहने वालों को ललकार रही है क्योंकि आज भी ऐसे शाइर, ऐसे ख़तीब और ऐसे नाम नेहाद मौलाई मौजूद हैं जो अशआर के ज़रीए, मजलिस के चटपटे नुक्तों के ज़रीए और सोशल मीडिया के ज़रिए शिया समाज में ग़ालियों की सोच को फैला रहे हैं।
इस लिए ज़रुरी है के हम इमाम रेज़ा (अ) की पैरवी करते हुए ग़ालियों की सोच से अक़ली और मंतक़ी (logical) दलीलों से मुबारज़ा करें और इस घटया सोच को समाज में फ़ैलने से रोकें तभी हम इमाम (अ) के सच्चे पैरोकार कहलाऐंगे।